Monday, May 10, 2021

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सक्सेस मंत्र: सफलता की राह दिखाते हैं गोस्वामी तुलसीदास के ये 5 दोहे
  • तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक। साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक। .
  • सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। 
  • आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह। 
  • तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुं ओर। 
  • तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।


Goswami Tulsidas, popularly known as Tulsidas was born in brahmin family and grown up to be a brahmin saint. He has written many popular books in sanskrit and awadhi but his most popular one is epic Ramcharitmanas, a narration of sanskrit Ramayana. And some more famous writeups including Valmiki.

तुलसीदास जी के ग्रंथ और कृतियां तुलसीदास जी ने अपने जीवन में बहुत से ग्रंथों की रचना की थी । वह संस्कृत भाषा के बहुत ही प्रचलित विद्वान माने जाते थे। तुलसीदास जी के सभी ग्रंथों में रामचरितमानस को बहुत ही महत्व दिया जाता है और आज भी लोग इसे पूरे भक्ति भाव से पढ़ते हैं। इस ग्रंथ में भगवान श्री राम के स्वरूप का बहुत ही सुंदर वर्णन किया गया है। इसके अलावा दोहावली में तुलसीदास जी ने दोहों और सोरठा का उपयोग करके नैतिका की बातों को लोगों तक पहुंचाया है।

वहीं कवितावली की रचना में तुलसीदास जी ने भगवान श्री राम का वर्णन कविता, चौपाई और सवैया के द्वारा छंदों में किया है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की तरह ही कवितावली में सात कांडो का वर्णन किया है। इसके अलावा गीतावली में भी सात कांडो का वर्णन किया गया है। जिसमें भगवान श्री राम की कृपालुता को दर्शाया गया है। इन सब के अलावा तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका कृष्ण गीतावली तथा बरवै रामायण, हनुमान बाहुक, रामलला नहछू, जानकी मंगल, रामज्ञा प्रश्न और संकट मोचन की भी रचना की है। तुलसीदास जी की यह सभी रचनाएं छोटी रही हैं। लेकिन इनका भाव बहुत गहरा है। रामचरितमानस के अलावा तुलसीदास जी की सबसे प्रमुख रचना हनुमान चालीसा को माना जाता है। जिसे लोग पूरे भक्ति भाव से पढ़ा जाता है। हनुमान चालीसा में प्रभु श्री राम के परम भक्त हनुमान जी का चित्रण किया गया है और यह भगवान राम के प्रति उनके सेवा भाव के वर्णन को बताया गया है। तुलसीदास जी स्वंय भी एक बहुत बडे रामभक्त थे। इसलिए उनकी ज्यादातर रचनाएं भगवान राम के ऊपर ही हैं।

मानस में संस्कृत, फारसी और उर्दू के शब्दों की भरमार है। प्रकाशन विभाग द्वारा सन 1978 में प्रकाशित पुस्तक 'रामायाण, महाभारत एंड भागवत राइटर्स' के पृष्ठ 110 पर मदन गोपाल ने रामचरितमानस की भाषा में के बारे में लिखते हुए कहा कि तुलसीदास अवधी और ब्रज भाषा में बराबर निष्णात थे। उन्होंने लगभग 90,000 संस्कृत शब्दों को गाँवों में प्रचलित किया, जबकि 40,000 देसी शब्दों को को पढ़े-लिखे लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया।

तुलसीदास ने अवधी और ब्रज भाषा के मिले-जुले स्वरूप को प्रचलित किया। इसके साथ ही उन्होंने फारसी और अन्य भाषाओं के हजारो शब्दों का प्रयोग किया। तुलसीदास ने संज्ञाओं का प्रयोग क्रिया के रूप में किया तथा क्रियाओं का प्रयोग संज्ञा के रूप में। इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। तुलसीदास ने भाषा को नया स्वरूप दिया।

अभी हाल ही में चित्रकूट स्थित अंतरराष्ट्रीय मानस अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख स्वामी रामभद्राचार्य ने रामचरितमानस का सम्पादन किया हैं। ग्रंथ की भूमिका में स्वामीजी ने रामचरितमानस की आज कल उपलब्ध प्रतियों की भाषा के बारे में कई मौलिक प्रश्न उठाए हैं। इन्हीं के आधार पर उन्होंने अपने संशोधनों का औचित्य भी प्रतिपादित किया है।

स्वामी जी ने लिखा है कि रामचरितमानस के वर्तमान संस्करणों में कर्तृवाचक उकार शब्दों की बहुलता हैं। उन्होंने इसे अवधी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध बताया है। इसी प्रकार उन्होंने उकार को कर्मवाचक शब्द का चिन्ह मानना भी अवधी भाषा के विपरीत बताया है। स्वामीजी अनुनासिकों को विभक्ति को द्योतक मानने को भी असंगत बताते हैं- 'जब तें राम ब्याहि घर आये'। कुछ अपवादों को छोड़कर अनावश्यक उकारांत कर्तृवाचक शब्दों के प्रयोग को स्वामी रामभद्राचार्य ने अवधी भाषा के विरुद्ध बताया है।

उनके अनुसार मानस की प्रचीन प्रतियों में उकार और अनुनासिकों का चंद्रग्रहण नहीं लगा है। जैसे प्रचलित अयोध्या कांड में उकार की बहुलता है, उसी प्रकार अनावश्यक अनुनासिकों की प्रचुरता भी है, जिनकी अवधी भाषा में न तो आवश्यकता है और न ही कोई इनकी अर्थ बोधक भूमिका।

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स्वामी रामभद्राचार्य इस बात से तो सहमत हैं कि तुलसीदास 'ग्राम्य गिरा' के पक्षधर थे। परन्तु वे जायसी की गँवारू अवधी के पक्षधर नहीं थे। स्वामी रामभद्रचार्य ने 'न्ह' के प्रयोग को भी अनुचित और अनावश्यक बताया है। उनके अनुसार नकार के साथ हकार जोड़ना ब्रज भाषा का प्रयोग है अवधी का नहीं। स्वामीजी के अनुसार मानस की उपलब्ध प्रतियों में तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं वे अनुचित हैं। उन्होंने लिखा है कि बाँदा तथा बुंदेलखंड में तुम शब्द का ही प्रयोग होता है।

'श' के प्रयोग के बारे में स्वामी रामभद्राचार्य को मानना है कि गोस्वामी तुलसीदास ने 'श' के स्थान 'स' का प्रयोग केवल वहीं किया है, जहाँ इसके प्रयोग से कोई आपत्तिजनक अर्थ न पैदा हो जाए।

स्वामी रामभद्राचार्य ने प्रसंगों के आधार पर भी कुछ संशोधन किए हैं, परंतु उनके द्वारा किए गए ज्यादातर संशोधन मानस की भाषा पर आधारित हैं। शास्त्रों की बार-बार दुहाई देने वाले स्वामीजी ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए चौपाई की परिभाषा भी बदल दी है। पिंगल शास्त्र के अनुसार चौपाई में सोलह-सोलह मात्राओ की चार अर्धालियाँ होनी चाहिए, परन्तु स्वामीजी के अनुसार चौपाई वास्तव में 4 यतियों का छंद है। उन्होंने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए हनुमान चालीसा का उदाहरण दिया है, जिसमें केवल 80 अर्धालियाँ हैं। इस संबंध में इतना ही कहना प्रर्याप्त हैं कि बहुत से विद्वान हनुमान चालीसा को रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की रचना नहीं मानते हैं। अगर मान भी लिया जाए कि इसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास ने ही की होगी, तो भी चालीसा का मतलब 40 चौपाई नहीं है बल्कि 40 पंक्तियाँ भी हो सकती हैं क्योंकि दो अर्धालियों को मिलाकर एक पंक्ति बनती है।

अवधी भाषा के संबंध में सबसे प्रामाणिक ग्रंथ डॉ. बाबूराम सक्सेना द्वारा लिखित 'अवधी का विकास' माना जाता है । डॉ. बाबूराम सक्सेना विश्वविख्यात भाषाविद थे, वे इलाहाबाद विवि में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रह चुके थे। प्रस्तुत ग्रन्थ उनके डीलिट का शोध प्रबंध है, जो उन्होंने डॉ. ज्यूल ब्लाख और डॉ. टर्नर के निर्देशन और मार्गदर्शन में लिखा था। इस पुस्तक में प्राचीन अवधी और वर्तमान अवधी की ध्वनियों का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

रामचरित मानस की रचना आज से 432 वर्ष पहले की अवधी भाषा में की गई थी। डॉ. सक्सेना के अनुसार संघर्षीध्वनि 'श' न तो प्राचीन अवधी की ध्वनि है और न ही आधुनिक अवधी की। मानस में 'ष' का प्रयोग 'ख' के स्थान पर किया गया है। डॉ. सक्सेना के अनुसार उकार को कर्म का चिन्ह मानना अनुनासिको का विभक्ति का द्योतक मानना, नकार के साथ हकार का जोड़ना और तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' का प्रयोग तुलसीदास के समय में अवधी भाषा में होता था। अतः अगर तुलसीदास ने ऐसा प्रयोग किया है, तो इसे अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता।

डॉ. सूर्यभानसिंह द्वारा लिखित मानस शब्दकोश तथा अन्य मानस कोशों को देखने के बाद भी यही नतीजा निकलता है कि 'श' ध्वनि संस्कृत की ध्वनि है अवधी की नहीं।

संस्कृत की 'श' ध्वनि बाद में विकसित लोक भाषाओं में स, छ या अन्य ध्वनियों के रूप में बदल गई। जैसे संस्कृत का 'शकट' शब्द लोक भाषा में छकड़ा हो गया। इसी प्रकार लोक भाषा के 'छुद्र' शब्द का मूल भी संस्कृत का 'शूद्र' शब्द है। संस्कृत की 'स' ध्वनि लोक भाषा में 'ख' या कहीं-कहीं 'छ', के रूप में विकसित होता है। जैसे छठ शब्द मूल्य संस्कृत का 'षष्ठी' शब्द है। पाणिनीय व्याकरण में भी एक सूत्र आता है 'शश्छोटि'। अर्थात सूत्र में वर्णित परिस्थितियों में 'श' का 'छ' हो जाता है।

रामचरितमानस की तुलसीदास द्वारा लिखित कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। जो भी प्रतियाँ मिलती हैं वे उनके जीवनकाल के बाद की तैयारी की गई लगती हैं। ऐसा लगता है कि रामचरित मानस की लोकप्रियता को देखकर तथा गोस्वामी तुलसीदास के संस्कृत ज्ञान को ध्यान में रखकर लिपिकारों ने मानस में 'स', 'छ' के स्थान पर 'श' अक्षर लिख दिया। इस प्रकार रामचरित मानस के शब्दों की वर्तनी में भारी परिवर्तन हो गया। इसी वजह से मानस के कई प्रसंग विवादास्पद हो गए हैं।

प्रतिलिपकारों को मानस में जो शब्द संस्कृत भाषा के हिसाब से अशुद्ध लगे, उन्हें शुद्ध करने के लिए उन्होंने अवधी के शब्दों के स्थान पर संस्कृत शब्दों को रख दिया, इस तरह लोक भाषा में रामचरितमानस में संस्कृत शब्दों की भरमार हो गई।

बाँदा जिला के राजापुर में जो अब चित्रकूट जिले में आ गया है और जिसे तुलसीदास का जन्म स्थान माना जाता है, अयोध्या कांड की एक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है।

ऐसी मान्यता है कि यह गोस्वामी तुलसीदास के हाथ लिखी हुई प्रति है। जो भी हो यह एक प्राचीन प्रति है। इस प्रति में प्रयोग की गई लिपि का विवरण बड़ा दिलचस्प है। तुलसी जन्म भूमि शोध समीक्षा के लेखक राम गणेश पांडेय ने अपनी पुस्तक पृष्ठ 91 तथा 'रामचरितमानस में महाकाव्य, भक्ति और दर्शन के लेखक डॉ. विद्गवम्बर दयाल अवस्थी ने अपनी पुस्तक में मानस में प्रयुक्त लिपियों का सचित्र वर्णन किया है। इसे देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय राजापुर प्रति लिखी गई होगी उस समय 'र' ध्वनि का स्वरूप आज के 'न' की तरह था। अर्थात अगर गोस्वामी जी ने रारी लिखा होगा तो वर्षों बाद उनके हाथ की लिखी हुई प्रति को लोगों ने नानी पढ़ा होगा और चूँकि नानी शब्द अटपटा लगता है इसलिए इसे नारी लिख दिया गया होगा। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित 'ढोल गँवार छुद्र पसू रारी', 'ढोल गँवार शूद्र पशू नारी' हो गया।

डॉ. बाबूराम सक्सेना ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अवधी भाषा कैथी लिपि में भी लिखी जाती थी। व्यापारी लोग मुडिया लिपि का प्रयोग करते थे। पढ़े-लिखे लोग अवधी को देवनागरी और फारसी लिपि में लिखते थे। इस तरह इतने प्रकार की लिपियों में लिखी जाने वाली अवधी में अगर बाद में तुलसीदास की महानता और विद्वता को देखते हुए उनमें संस्कृत शब्दों की भरमार कर दी गई तो कोई आश्चर्य नहीं।

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