Friday, July 4, 2025

पनघट

भारतीय संस्कृति में पनघट (या पनघट) केवल एक जल स्रोत नहीं, बल्कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक केन्द्र रहा है। गाँवों में कुआँ, बावड़ी या तालाब के किनारे बना पनघट महिलाओं के जीवन का अभिन्न अंग था। यह वह स्थान था जहाँ महिलाएँ जल भरने के लिए एकत्र होती थीं, परन्तु इसके साथ ही यह मेलजोल, गान, परंपराओं और कई बार प्रेम कथाओं का भी केन्द्र बन जाता था।

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक गाँवों तक, पनघट ने स्त्रियों को एक सार्वजनिक मंच प्रदान किया जहाँ वे अपने सुख-दुःख बाँट सकती थीं। यह स्थान बातचीत, लोकगीतों, हँसी-मजाक और अनुभवों के आदान-प्रदान का केन्द्र बन गया। यही कारण है कि लोक साहित्य, गीतों और फिल्मों में पनघट का अत्यंत सौंदर्यपूर्ण और भावुक चित्रण किया गया है।

पनघट पर नायिका की प्रतीक्षा करता नायक, जल भरती गोपियाँ और छेड़छाड़ करते कृष्ण जैसे दृश्य भारतीय साहित्य, लोकगीत और कला में बार-बार चित्रित हुए हैं। प्रसिद्ध भजन “पनघट पे मोहे नंदलाल छेड़ गयो रे” इसका उदाहरण है। यहाँ पनघट सिर्फ एक स्थान नहीं बल्कि भावनाओं, प्रेम और श्रृंगार रस का प्रतीक बन जाता है।

पनघट जल का प्रमुख स्रोत था। गाँव के जीवन की धुरी जल पर आधारित होती थी। इसलिए पनघट का साफ-सुथरा और व्यवस्थित होना पूरे गाँव के स्वास्थ्य और कृषि व्यवस्था के लिए आवश्यक था। इसके आस-पास वृक्षों की छाया, पक्षियों का कलरव और मिट्टी की सौंधी गंध ग्रामीण जीवन की आत्मा बन जाती थी।

अब जबकि नल और पाइपलाइनों ने पनघटों की आवश्यकता को कम कर दिया है, फिर भी कई गाँवों में यह परंपरा आज भी जीवित है। कुछ स्थानों पर इन्हें पर्यटक स्थलों या सांस्कृतिक धरोहरों के रूप में संरक्षित किया गया है

पनघट केवल जल का स्रोत नहीं था, वह एक जीवंत परंपरा, एक सामाजिक संस्था और एक सांस्कृतिक स्मृति था। आज आवश्यकता है कि हम अपने इस सांस्कृतिक धरोहर को संजोएं और नई पीढ़ी को इसके महत्त्व से अवगत कराएँ। पनघट की स्मृति में वह सुगंध बसती है जो भारत की आत्मा की सच्ची पहचान है।


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