भूलोक अतल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदिसृजन
यह देख महाभारत का रण -
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है ॥
अम्बर में कुंतल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुठठी में तीनों काल देख
दुर्योधन! मेरा स्वरूप विकराल देख -
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं ॥
“davndgeet"
चाहे जो भी फसल उगा ले,
तू जलधार बहाता चल।
जिसका भी घर चमक उठे,
तू मुक्त प्रकाश लुटाता चल।
रोक नहीं अपने अन्तर का
वेग किसी आशंका से,
मन में उठें भाव जो, उनको
गीत बना कर गाता चल।
तुझे फिक्र क्या, खेती को
प्रस्तुत है कौन किसान नहीं?
जोत चुका है कौन खेत?
किसको मौसम का ध्यान नहीं?
कौन समेटेगा, किसके
खेतों से जल बह जाएगा?
इस चिन्ता में पड़ा अगर
तो बाकी फिर ईमान नहीं।
तू जीवन का कंठ, भंग
इसका कोई उत्साह न कर,
रोक नहीं आवेग प्राण के,
सँभल-सँभल कर आह न कर।
उठने दे हुंकार हृदय से,
जैसे वह उठना चाहे;
किसका, कहाँ वक्ष फटता है,
तू इसकी परवाह न कर।
हम पर्वत पर की पुकार हैं,
वे घाटी के वासी हैं;
वन में ही वे गृही और
हम गृह में भी संन्यासी हैं।
वे लेते कर बन्द खिड़कियाँ
डर कर तेज हवाओं से;
झंझाओं में पंख खोल
उड़ने के हम अभ्यासी हैं।
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
हरियाली है जहां, जलद भी उसी खण्ड के वासी,
मरु की भूमि मगर,रह जाती है प्यासी की प्यासी।
और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
सचमुच, उसके लिए उसे सब कुछ देना पड़ता है।
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।
पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहां कहीं हँसती है,
वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बस्ती है।
जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबरा कर,
दी जग को रौशनी टेक पर अपनी जान गंवाकर।
नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,
देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है।
आजीवन झेलते दाह का दंश वीर-व्रतधारी,
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी।
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,
सबसे बड़ी जांच है व्रत का अंतिम मोल चुकाना।
अंतिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या?
करने लगे मोह प्राणों का - तो फिर प्रण लेना क्या?
सस्ती कीमत पर बिकती रहती जब तक कुर्बानी ,
तब तक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी।
पर, महंगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,
हंस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर घर है।
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे कहो कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही
अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल है
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द अनुनय के प्यारे प्यारे
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की बंधा मूढ़ बन्धन में
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका जिसमे शक्ति विजय की
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है
" SHAKTI AUR KSHAMA"
Teen divas tak panth mangte, Raghupati sindhu kinare,
baithe padhte rahe chhand, anunay ke pyare.
Uttar mein jab ek naad bhi utha nahi saagar se,
uthi dhadhak adheer paurush ki, aag raam ke shar se,
Sindhu deh dhar trahi, trahi kahta aa gira charan mein,
charan pooj, daastan grahan ki,bandha moodha bandhan mein.
For three days Lord Raam kept asking the ocean for a passage
Sitting there he petitioned using the sweetest words to engage
When in response there was not a whisper from the sea
A raging fire of endeavor rose from Raam’s body
The ocean took human-form ‘N supplicated to Raam
Touched his feet, was subservient a slave he had become
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