Sunday, July 17, 2022

Sarayu

 The Sarayu is a river that originates at a ridge south of Nanda Kot mountain in Bageshwar district in Uttarakhand, India. It flows through Kapkot, Bageshwar, and Seraghat towns before discharging into the Sharda River at Pancheshwar at the India—Nepal border. Sharda river (also known as Kali river) then flows into Ghaghara river in Sitapur District, Uttar Pradesh, India.

Lower Ghaghara is also popularly known as Sarayu in India. Especially while it flows through the city of Ayodhya, the birth place of Hindu deity Rama. The river is mentioned various times in the ancient Indian epic of Ramayana.

Numerous groups of pious men take a dip in the holy water and visualizing in their heart the beautiful form of Sri RAMA  mutter his name.

The very sight and touch of the sarayu  a dip into its waters or even a drought from it cleanses one of his sins this is declared by the vedas puranas. Even Sarada the goddess of learning with pure intellect cannot describe the infinite glory of this most sacred river. Proof that GoswamyTulasidas commented writing the Manas here and wrote the chapter of Sunderland here is given by the following story.


https://youtu.be/jxTxSVY7z0U


धौरहरा की प्राचीन रामवटी है उनके प्रवास की साक्षी

खीरी जिले में सरयू नदी के तट पर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के एक खंड सुंदरकांड की रचना की थी। धौरहरा की रामवटी गोस्वामी जी के प्रवास  की साक्षी है। यहां लगा सैकड़ों साल पुराना वट वृक्ष और दुलही में जागेश्वर तिवारी के परिवार के पास सुरक्षित सुंदरकांड की पांडुलिपि तुलसीदास के यहां प्रवास का प्रमाण है। 

मौजा धौरहरा की बाजिलबुलअर्ज में जांगड़ा राजा खड़क सिंह की उर्दू में लिखे एक आलेख में कहा गया है कि सन 1021 फसली में फकीर  बैरागी तुलसीदास सरयू किनारे भ्रमण करते यहां के जंगल में आए। उन्होंने  रामचरित मानस की रचना की थी। एक बार वह धौरहरा राजा खड़क सिंह से भेंट करने आए तो राज्य के कर्मचारियों ने बताया कि राजा साहब पूजा कर रहे हैं, इस पर बैरागी ने  कहा कि वह पूजा नहीं हिसाब लगा रहे हैं। बाद में पूजा कर आने पर राजा को  उत्कंठा हुई तो वह तुलसीदास के स्थान पर गए। तुलसीदास जी उस समय शौच के लिए गए हुए  थे तब राजा परीक्षा लेने के उद्देश्य से उनके आसन पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद  हाथ में बरगद की दातून लिए फकीर तुलसीदास आ गए और राजा से कहा तुमने पृथ्वी का राजा होकर फकीर का आसन ले लिया। अब पृथ्वी का राज्य तुम्हारे हाथ से  निकल जाएगा।



राजा को पश्चाताप हुआ, वह तुलसीदास जी के चरणों में गिर गए तो दयावान तुलसीदास जी ने हाथ में पकड़ी दातून अपने आसन के पास ही जमीन  में दबा दी और कहा कि यह दातुन जब तक रहेगी तब तक जमीन पर तुम्हारा अधिकार  रहेगा। तुलसीदास जी की दातुन विशाल वट वृक्ष बन गई, वट दातुन के कारण ही उस  स्थान का नाम रामवटी हो गया। आज भी वहां राज परिवार दातुन से बने विशाल वट वक्ष की रक्षा और उसकी देख रेख करता है। बाजिबुलअर्ज में राजा खडक सिंह के आलेख  से गोस्वामी तुलसीदास का यहां पर प्रवास प्रमाणित होता है।


दुलही में है सुंदरकांड की पांडुलिपि

धौरहरा तहसील के दुलही ग्राम में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित सुंदरकांड के 24 पन्ने मौजूद हैं। जो भोजपत्र पर  स्याही से लिखे गए हैं। गांव के जागेश्वर तिवारी के पुत्र संजय तुलसीदास जी की पांडुलिपि को संजोए हुए हैं। संजय ने बताया कि उनके पूर्वज मौजा  अटकोहना निवासी पं भवानी शंकर त्रिपाठी, मां काली के उपासक थे। उनकी तुलसीदास से भेंट हुई तो तुलसीदास ने भेंटस्वरूप उन्हें सुंदरकांड की हस्तलिखित प्रति प्रदान की। पं भवानी शंकर के बाद वह प्रति उनके वंशज उदयनाथ त्रिपाठी  के पास आई। बाद में वे वह अटकोहना छोड़कर दुलही ग्राम में रहने लगे। 


पांडुलिपि में संवत 1672 है अंकित

संजय तिवारी के पास सुरक्षित पांडुलिपि के प्रत्येक पन्ने पर  संवत 1672 लिखा हुआ है और प्रत्येक पन्ने पर ही सीताराम लिखी गोल मोहर लगी है, जो श्रीरामदूत हनुमानजी द्वारा लगाई गई बताई जाती है।

संजय बताते हैं  कि गीता प्रेस गोरखपुर के तत्कालीन संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके  गांव दुलही आए थे। वह सुंदरकांड की प्रति को अपने साथ गोरखपुर ले गए थे।  वहां उन्होंने भोजपत्र पर लिखे सुंदरकांड को गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित  होने की बात कही थी। उन्होंने इसे कल्याण के वर्ष 13 अंक तीन के मानसांक खंड तीन में प्रकाशित भी किया था। वैसे भी राजा खड़क सिंह की तहरीर में संवत  1671 में यहां के सरयू तट पर गोस्वामी तुलसीदास जी के निवास का हवाला मिला  है। गोस्वामी जी का स्वर्गवास संवत 1680 विक्रमी में हुआ था, जिससे भी यह  प्रति गोस्वामी जी द्वारा रचित प्रमाणित होती है।


   




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