Friday, May 21, 2021

महाराणा प्रताप श्याम नारायण पांडे

 महाराणा प्रताप के शौर्य का वर्णन श्याम नारायण पांडेय ने अपनी कविता हल्दी घाटी का युद्ध में किया है। इस कविता में पांडेय ने राणा प्रताप की वीरता का बड़ा सटीक ढंग से वर्णन किया है। 

वण्डोली है यही¸ यहीं पर 
है समाधि सेनापति की। 
महातीर्थ की यही वेदिका 
यही अमर–रेखा स्मृति की
एक बार आलोकित कर हा
यहीं हुआ था सूर्य अस्त। 
चला यहीं से तिमिर हो गया 
अन्धकार–मय जग समस्त
आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर 
फूल चढ़ाने आया हूँ। 
आज यहीं पावन समाधि पर 
दीप जलाने आया हूँ

राणा प्रताप  ने सम्राट अकबर के साथ हल्दीघाटी में युद्ध लेकर अपने लिए मुसीबत खड़ी कर ली लेकिन इसी युद्ध ने इतिहास में राणा को महान तेजस्वी  क्षत्रिय का दर्जा दिया। 

पांडेय ने युद्ध के दौरान राणा  के घोड़े चेतक को भी नायक के रूप में पेश किया है। कविता में पांडेय ने स्पष्ट किया है  कि घोड़े से बढ़कर  स्वामी भक्त दूसरा और  कोई प्राणी नहीं हो सकता।

लहराती थी सिर काट–काट    
बल खाती थी भू पाट–पाट    
बिखराती अवयव बाट–बाट    
तनती थी लोहू चाट–चाट

सेना–नायक राणा के भी    
रण देख–देखकर चाह भरे    
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे    
दूने–तिगुने उत्साह भरे

क्षण मार दिया कर कोड़े से    
रण किया उतर कर घोड़े से    
राणा रण–कौशल दिखा दिया    
चढ़ गया उतर कर घोड़े से

क्षण भीषण हलचल मचा–मचा    
राणा–कर की तलवार बढ़ी    
था शोर रक्त पीने को यह    
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा    
मानो उस पर पवि छूट पड़ा    
कट गई वेग से भू¸ ऐसा    
शोणित का नाला फूट पड़ा

जो साहस कर बढ़ता उसको    
केवल कटाक्ष से टोक दिया    
जो वीर बना नभ–बीच फेंक    
बरछे पर उसको रोक दिया
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर    
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।    
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते    
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर

कहता था लड़ता मान कहां    
मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।    
जिस पर तय विजय हमारी है    
वह मुगलों का अभिमान कहां

भाला कहता था मान कहां    
घोड़ा कहता था मान कहां?    
राणा की लोहित आंखों से    
रव निकल रहा था मान कहां

"कुशल नहीं राणा प्रताप का... 

बचपन में ही इस कविता को पढ़ा और राणा के व्यक्तित्व को समझने में यह कविता काफी मददगार रही। कविता में राणा के स्वाभिमान का रोबीला वर्णन मुझे श्याम नारायण पांडेय का मुरीद बनाता है। राणा प्रताप  ने सम्राट अकबर के साथ हल्दीघाटी में युद्ध लेकर अपने लिए मुसीबत खड़ी कर ली लेकिन इसी युद्ध ने इतिहास में राणा को महान तेजस्वी  क्षत्रिय का दर्जा दिया। 

"कुशल नहीं राणा प्रताप का 
मस्तक की पीड़ा से। 
थहर उठेगा अब भूतल 
रण–चण्डी की क्रीड़ा से

जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के 
गौरव की रक्षा की। 
खेद यही है वही मान का 
कुछ रख सका न बाकी

बिना हेतु के होगा ही वह 
जो कुछ बदा रहेगा
किन्तु महाराणा प्रताप अब 
रोता सदा रहेगा

मान रहेगा तभी मान का 
हाला घोल उठे जब
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर 
भय से डोल उठे जब

चकाचौंध सी लगी मान को 
राणा की मुख–भा से
अहँकार की बातें सुन 
जब निकला सिंह गुफा से

दक्षिण–पद–कर आगे कर 
तर्जनी उठाकर बोला
गिरने लगा मान–छाती पर 
गरज–गरज कर गोला

वज`–नाद सा तड़प उठा 
हलचल थी मरदानों में 
पहुंच गया राणा का वह रव 
अकबर के कानों में
"अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत 
खाना हो तो खाओ
या बधना का ही शीतल–जल 
पीना हो तो जा

जो रण को ललकार रहे हो 
तो आकर लड़ लेना
चढ़ आना यदि चाह रहे 
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना

कहाँ रहे जब स्वतन्त्रता का 
मेरा बिगुल बजा था? 
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को 
तुमने क्या समझा था

अभी कहूँ क्या¸ प्रश्नों का 
रण में क्या उत्तर दूँगा। 
महामृत्यु के साथ–साथ 
जब इधर–उधर लहरूंगा

भभक उठेगी जब प्रताप के 
प्रखर तेज की आगी। 
तब क्या हूँ बतला दूँगा 
ऐ अम्बर कुल के त्यागी

अभी मान से राणा से था 
वाद–विवाद लगा ही
तब तक आगे बढ़कर बोला 
कोई वीर–सिपाह 

"करो न बकझक लड़कर ही 
अब साहस दिखलाना तुम
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को 
भी लेते आना तुम

जो तनिक हवा से बाग हिली    

पूरी कविता में पहली लाइन से शुरू हुआ ओज कविता की अंतिम पंक्तियों तक बना रहता है। पांडेय की विशेषता है कि वह अपने ओजस्वी काव्य में कहीं भी वीरता की लय को टूटने नहीं देते हैं। 









निर्बल बकरों से बाघ लड़े    
भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से    
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी
पैदल बिछ गये बिछौनों से


हाथी से हाथी जूझ पड़े    
भिड़ गये सवार सवारों से    
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े    
तलवार लड़ी तलवारों से


हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे    
कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे    
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे    
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे

क्षण महाप्रलय की बिजली सी    
तलवार हाथ की तड़प–तड़प।    
हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा    
लेती थी बैरी वीर हड़प

क्षण पेट फट गया घोड़े का    
हो गया पतन कर कोड़े का    
भू पर सातंक सवार गिरा    
क्षण पता न था हय–जोड़े का
चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी    
लेकर अंकुश पिलवान गिरा।    
झटका लग गया¸ फटी झालर    
हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।

मेवाड़–केसरी देख रहा¸    
केवल रण का न तमाशा था।    
वह दौड़–दौड़ करता था रण    
वह मान–रक्त का प्यासा था।

चढ़कर चेतक पर घूम–घूम    
करता सेना–रखवाली था।    
ले महा मृत्यु को साथ–साथ    
मानो प्रत्यक्ष कपाली था

रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर    
चेतक बन गया निराला था।    
राणा प्रताप के घोड़े से¸    
पड़ गया हवा को पाला था

गिरता न कभी चेतक–तन पर    
राणा प्रताप का कोड़ा था।    
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर    
या आसमान पर घोड़ा था

जो तनिक हवा से बाग हिली    
लेकर सवार उड़ जाता था।    
राणा की पुतली फिरी नहीं    
तब तक चेतक मुड़ जाता था

चढ़ चेतक पर तलवार उठा    
रखता था भूतल–पानी को।    
राणा प्रताप सिर काट–काट    
करता था सफल जवानी को।

कलकल बहती थी रण–गंगा    
अरि–दल को डूब नहाने को।    
तलवार वीर की नाव बनी    
चटपट उस पार लगाने को।।


वैरी–दल को ललकार गिरी¸    
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।    
था शोर मौत से बचो¸बचो¸    
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी

लहराती थी सिर काट–काट    

पांडेय ने युद्ध के दौरान राणा  के घोड़े चेतक को भी नायक के रूप में पेश किया है। कविता में पांडेय ने स्पष्ट किया है  कि घोड़े से बढ़कर  स्वामी भक्त दूसरा और  कोई प्राणी नहीं हो सकता।


लहराती थी सिर काट–काट    
बल खाती थी भू पाट–पाट    
बिखराती अवयव बाट–बाट    
तनती थी लोहू चाट–चाट

सेना–नायक राणा के भी    
रण देख–देखकर चाह भरे    
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे    
दूने–तिगुने उत्साह भरे

क्षण मार दिया कर कोड़े से    
रण किया उतर कर घोड़े से    
राणा रण–कौशल दिखा दिया    
चढ़ गया उतर कर घोड़े से

क्षण भीषण हलचल मचा–मचा    
राणा–कर की तलवार बढ़ी    
था शोर रक्त पीने को यह    
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा    
मानो उस पर पवि छूट पड़ा    
कट गई वेग से भू¸ ऐसा    
शोणित का नाला फूट पड़ा

जो साहस कर बढ़ता उसको    
केवल कटाक्ष से टोक दिया    
जो वीर बना नभ–बीच फेंक    
बरछे पर उसको रोक दिया
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर    
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।    
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते    
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर

कहता था लड़ता मान कहां    
मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।    
जिस पर तय विजय हमारी है    
वह मुगलों का अभिमान कहां

भाला कहता था मान कहां    
घोड़ा कहता था मान कहां?    
राणा की लोहित आंखों से    
रव निकल रहा था मान कहां


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