रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं, उनकी कविताएं ओज का रस भी लिए रहती हैं और श्रृंगार भी। पेश हैं दिनकर की कविताओं की कुछ चुनिंदा पंक्तियां
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमन्त्रणआग की भीख
आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँआशा का दीपक
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं हैकलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोलसमर शेष है
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराधरात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे"
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