आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र का पद्यानुवाद
पिंचरवत देह की अर्चना
-अवधेश कुमार सिन्हा द्वारा अनुदित एवं पद्यबद्ध
(1)
प्रात: संध्या दिवस और रात,
शिशिर-वसंत अनुपम सौगात.
समय-रथ-चक्र – घर्घर नाद,
कहीं आह्लाद– कहीं विषाद.
आत्म-विभोर-मन दंभी रोर,
समस्त जग में वैभव का शोर .
प्रिया-परिजन-सर्व-जग-विनश्वर,
नर- नारी -रूप :अर्द्धनारीश्वर .
रति-राग मद जीवन -वसंत,
सुरम्य वितान – परिणय प्रसंग.
जीवन के ये, मोहक आयाम ;
पर अस्थायित्व-मय,ये दु:ख-धाम.
दस्तक दी सहसा एक छाया,
अपरिचित रूप देख जी घबराया.
‘बोली वह ! मैं जीवन- सत्य —
क्षणभंगुर दुनिया नहीं अमर्त्य.
समय अति अल्प करो तैयारी,
भज गोविन्द ! जाने की बारी.
त्यागूँ कैसे -कनकाभ-प्रासाद ?
प्रिय-परिजनों से शेष -संवाद.
साथ दुर्दम्य विकारों की बोझ,
बंध-ग्रंथियां देतीं, जन्म कुरोग.
(2)
उर समक्ष कर, अग्नि- सेवन
पार्श्व-भाग से, रवि-रश्मि लेहन
धरा लिपटी, ओढ़े शीत-वितान,
चिबूक-ठेहुना पे रख, निद्रा-ध्यान.
हस्त-तल श्रेष्ठ,यति -भीक्षा-पात्र;
तरु -सघन तल, आश्रय दिन-रात .
अतृप्त-इच्छाओं का,नर्तन -घर्षण-
देतीं मोहमाल,क्षरण होते शांति-क्षण
रे मन ! सर्व भूल, भजो घनश्याम :
भव-भय-हारक, दायक दुर्लभ धाम.
(3)
हे प्यारे ! सदा भज ! कृष्ण ललाम-
जग के परम-आश्रय ! पूरण-सर्व-काम.
मत भूल ! परिजन -इष्ट-मित्र अपार –
करते संबंधों का, सर्वदा क्षुद्र- व्यापार.
जब समर्थ-वित्त-अर्जन, था प्रिय-जन –
पूजित-पुरूष-महिमामय,सर्व गुण-रत्न.
अशक्त क्षीण-काय, जर्जर निरूपाय-
जग-दृष्टि बदली : अब अपूत काय.
(4)
जटा- जूट सुशोभित-भाल : या मुंचित-केश;
गेरुआ-परिधान -म्लान वदन या शोक की रेख
जग-बीच या जग से बाहर,बूंदें सम पद्म पर्ण पर
जठराग्नि -ज्वाल, भर-मुठ्ठी-अन्न के लिये बेहाल.
हे प्यारे ! भजो : गोपाल ! गोपाल ! दीनदयाल. २
(5)
तनिक भी गीता-ज्ञान, गंगा-जल के बूंदों का पान –
ब्रजबिहारी- हे मुरारि ! कह करता- करूण पुकार :
सुन मृत्युदेव ठमक जाते, करना कार्य-अनिवार,
क्षण में श्रीकृष्ण प्रकट हो- हरते दु:ख अपार.
अभय-मन सदा भजो प्यारे ! गोविन्द बारंबार.२
(6)
गलित-अंग-पलित-मुंड -दशन-विहीन विवर तुंड;
वार्द्धक्य की भार प्रचंड, ढोते कम्पित हस्त-दंड.
आशा-लता -प्रबल बाढ़, वृद्ध अभी रहा दहाड़.
अनश्वर- संसार-पाश,समक्ष देख यम- त्रास.
भूल संसार ओ मूढ-मति, सदा जपो मधुराधिपति.२
(7)
क्रीड़ा-मय बाल- काल, युवक रति- राग निहाल.
बृद्ध शोक-चिन्ता-मग्न, तनिक नहीं -ब्रह्म-लग्न.
त्याग धन-संसार–बंध, सदा जपो प्यारे यशोदानंद.
त्याग धन-संसार-बंध, जपो प्यारे सदा यशोदानंद.
(8)
बार- बार मातृ- कुक्षि- निवास, असह्य वेदना पुन: जन्म- त्रास.
मरण- दुसह दु:ख -हाहाकाऱ, पुनर्जनम की व्यथा -कथा-अपार.
त्राहि माम् हे श्रीपति- ज्योति साकार, हे नाथ ! करो भव पार
भज गोविन्द-गोविन्द ! नर सरल-चित्त ! करो आश ईश -सर्व निमित्त.
(9)
पुन: दिवस पुनश्च रात, पुन: पक्ष पुनश्च मास.
पुन: अयन पुनश्च वर्ष, तदपि न विगत आशामर्ष.
ममता आशा जीवन-बंध, भज प्यारे केवल गोकुलानंद.
भज-भज प्यारे राधा-श्याम! सद्गति दायक श्रीघनश्याम.
(10)
गत-आयु -नहीं काम-शैलाब, वारि विहीन -कैसा तालाब ?
बिना वित्त -कैसा परिवार, सत्य-दर्शन फिर क्या संसार ?
जीवन के ये मंत्र अमोल – शोधि-शोधि सदा मुरारि बोल.
सदा जपिये जय गोकुलनाथ, वे अनाथों के सर्वदा नाथ.
(11)
वक्ष-उरोज नाभि चारू चितवन, मांस-वसादि विकार भवन.
वाह्य चर्म सुघर मनोहर रूप, रक्त-मल-मूत्रादि-तन–बदरूप
प्रति- पल कीजिये सोच- विचार, सतत भजिये नंदकुमार .
माया – मोह के संहारक नाथ, बार- बार कहिये -श्रीयदुनाथ.२
(12)
आये कहाँ से इस जगत में, क्या तेरी- मेरी पहचान ?
तात-मात हैं कौन हमारे -क्या जग का अनुपम-अवदान?
संसार है –यह छल-छद्म असार, यह सत्य जीवन का सार.
जपिये पल-पल गोविंद नाम, परम आश्रय श्रीकृष्ण ललाम.२
(13)
गाइये गीता-नाम-सहस्त्र-बार,ध्यान में रखिये सदा नंदकुमार.
सुधी-संत-संग सदा श्रेयस्कर, दरिद्र- तोषन-पोषन अघहर
श्रीगोविन्द सम मानते इन्हें सुजान, करते सदा इनका सम्मान.
गोविन्द – गोविन्द गोविन्द का ध्यान, है महामंत्र -मुक्तिगान.२
(14)
प्राण- वायु जबतक शरीर में, स्नेह कुशल-क्षेम पृच्छक गेह में.
विगत प्राण- वायु शव भयंकर, नही प्रिया लगाती अंक भर.
यह जीवन का शाश्वत सत्य, प्रति पल गोविन्द भजो हे मर्त्यं !
पल-पल गोविन्द भजो हे मर्त्य ! केवल गोविन्द भजो हे मर्त्य ! २
(15)
काम-क्रीड़ा रति -समागम, आरंभिक सुख बाद में दु:ख -आगम.
मृत्यु पथ पर नर सदा आसीन, तदपि क्यों पापाचार में लीन.
संसार नश्वरता का परम आगार, नही स्थायित्व नहीं आधार.
हर पल जपिये करूणानिधान, सर्व सशक्त -सबसे बलवान .
(16)
चिथड़ों से विरचित-कन्था-माल, डाल गले में यति- निहाल.
जान पुण्यापुण्य का परम रहस्य, नहीं मैं- नहीं तू है सत्य.
परम प्रकाश सर्व समाहित, सोऽहम समष्टि भेद अनुचित.
लब्ध परम तत्त्व -फिर कैसा शोक,भज गोविन्द बनो विशोक.
(17)
होता अफलित गंगा- सागर-स्नान, व्रत का पालन अथवा दान;
जब तक गोविन्द का नहीं आदेश, व्यर्थ कोटि दान- तप- कलेश.
साज्ञा सफल होता सर्व कर्म, स्मरण : गोविन्द, मनुज का धर्म;
सतत भजन गोविन्द का नाम, कुंठा- मुक्त विगत संचित काम.
आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र मूल पाठ
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥भज …
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥२॥ भज …
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति को॓ऽपि न गेहे॥३॥ भज …
जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायांबरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोक: ॥४॥ भज …
भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥५॥ भज …
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्॥६॥ भज …
बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥७॥ भज …
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥ भज …
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥९॥ भज …
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥१०॥ भज …
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् ॥११॥ भज …
कस्त्वं कोऽहं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥१२॥ भज …
गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥१३॥ भज …
यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१४॥ भज …
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१५॥ भज …
रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥ भज …
कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥ भज
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