Saturday, August 21, 2021

Charapatpanjarika.

Charpat Panjarika Stotra (चर्पट पञ्जरिका स्तोत्रम्): The epics and the Puranas often describe the glory of royal lineages. In talking about a specific king, having described his glorious ancestry, they will go on to say, through his own deeds or through his deeds. I am what I am because of who I am. This definition, whatever else, may be a function of, is not a function of my friends and relatives. The Chandogya Upanishad has the story of Satyakama, Jabala’s son. Satyakama sought a preceptor and went to the rishi Gautama, who asked him who his father was. Jabala didn’t know, so neither did Satyakama. (The Satyakama story merits more discussion in a later column). Since he defined himself by stating the truth, Gautama had no hesitation in accepting Satyakama as a disciple. There is a famous composition attributed to Adi Shankaracharya (the customary date is 780-820 CE). It usually goes by the name of worship Govinda. It also goes by the name of moha mudgara (Fascination), or club used to shatter illusion). There is a reason why I used the word ‘attributed’. You will find different renderings/texts of bhaja Govinda. Usually, there will be 26 Shlokas, but sometimes there may be an additional five Shlokas, bringing the total to 31. The 26 Shlokas are divided into two groups of 12 + 14. The first set of 12 is referred to as dwadasha panjarika. Dwadasha means twelve and panjarika is a cage. You may also find references to this as Dwadasha manjarika, with manjarika meaning a flower, especially of the Tulsi plant. The second set of 14 is referred to as. Charpata means rags. The sense is that we are clothing ourselves in valueless and tattered rags, we are binding ourselves into a cage. The story is that Adi Shankar didn’t compose the fourteen verses of Charpat Panjarika Stotra himself. Instead, he got fourteen of his disciples to compose one Sloka each. We will probably revisit bhaja Govinda in the future. For the moment, I want to focus on a few of its verses. These are familiar Shlokas and you may have heard them without knowing about the antecedents. Benefits of Charpat Panjarika Stotra Charpat Panjarika Stotra strengthens the mechanism of the body, the mental stability, and inspires to do good to the person who recites this Charpat Panjarika Stotra regularly. Who has to recite Charpat Panjarika Stotra The person losing concentration, distortion while working and do not get the desire result must recite this Charpat Panjarika Stotra regularly.

 

आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र का पद्यानुवाद

पिंचरवत देह की अर्चना

-अवधेश कुमार सिन्‍हा द्वारा अनुदित एवं पद्यबद्ध

(1)


प्रात: संध्या दिवस और रात,
शिशिर-वसंत अनुपम सौगात.
समय-रथ-चक्र – घर्घर नाद,
कहीं  आह्लाद– कहीं  विषाद.
आत्म-विभोर-मन  दंभी  रोर,
समस्त जग में वैभव का शोर .
प्रिया-परिजन-सर्व-जग-विनश्वर,
नर- नारी -रूप  :अर्द्धनारीश्वर .
रति-राग  मद  जीवन -वसंत,
सुरम्य वितान – परिणय प्रसंग.
जीवन के ये,  मोहक आयाम ;
पर अस्थायित्व-मय,ये दु:ख-धाम.
दस्तक दी  सहसा  एक छाया,
अपरिचित रूप देख जी घबराया.
‘बोली वह ! मैं  जीवन- सत्य —
क्षणभंगुर दुनिया नहीं अमर्त्य.
समय अति अल्प करो तैयारी,
भज गोविन्द ! जाने की बारी.
त्यागूँ कैसे -कनकाभ-प्रासाद ?
प्रिय-परिजनों से शेष -संवाद.
साथ दुर्दम्य विकारों की बोझ,
बंध-ग्रंथियां देतीं, जन्म कुरोग.

(2)

उर समक्ष कर, अग्नि- सेवन
 पार्श्व-भाग से, रवि-रश्मि लेहन
 धरा लिपटी, ओढ़े शीत-वितान,
 चिबूक-ठेहुना पे रख, निद्रा-ध्यान.
 हस्त-तल श्रेष्ठ,यति -भीक्षा-पात्र;
तरु -सघन तल, आश्रय दिन-रात .
अतृप्त-इच्छाओं का,नर्तन -घर्षण-
देतीं मोहमाल,क्षरण होते शांति-क्षण
रे मन ! सर्व भूल, भजो घनश्याम :
भव-भय-हारक, दायक दुर्लभ धाम.

(3)

हे प्यारे ! सदा भज ! कृष्ण ललाम-
जग के परम-आश्रय ! पूरण-सर्व-काम.
मत भूल ! परिजन -इष्ट-मित्र अपार –
करते संबंधों का, सर्वदा क्षुद्र- व्यापार.
जब समर्थ-वित्त-अर्जन, था प्रिय-जन –
पूजित-पुरूष-महिमामय,सर्व गुण-रत्न.
अशक्त क्षीण-काय, जर्जर निरूपाय-
जग-दृष्टि बदली : अब अपूत  काय.

(4)

जटा- जूट सुशोभित-भाल : या मुंचित-केश;
गेरुआ-परिधान -म्लान वदन या शोक की रेख
जग-बीच या जग से बाहर,बूंदें सम पद्म पर्ण पर
जठराग्नि -ज्वाल, भर-मुठ्ठी-अन्न के लिये बेहाल.
हे प्यारे ! भजो : गोपाल ! गोपाल ! दीनदयाल. २

(5)


तनिक भी गीता-ज्ञान, गंगा-जल के बूंदों का पान –
ब्रजबिहारी- हे मुरारि ! कह करता- करूण पुकार :
सुन मृत्युदेव ठमक जाते, करना  कार्य-अनिवार,
क्षण में  श्रीकृष्ण प्रकट हो- हरते दु:ख अपार.
अभय-मन  सदा भजो प्यारे ! गोविन्द  बारंबार.२

(6)

गलित-अंग-पलित-मुंड -दशन-विहीन विवर तुंड;
 वार्द्धक्य की भार प्रचंड, ढोते कम्पित हस्त-दंड.
 आशा-लता -प्रबल बाढ़, वृद्ध अभी रहा दहाड़.
 अनश्वर- संसार-पाश,समक्ष देख यम- त्रास.
 भूल संसार ओ मूढ-मति, सदा जपो मधुराधिपति.२

(7)

क्रीड़ा-मय बाल- काल, युवक रति- राग निहाल.
 बृद्ध शोक-चिन्ता-मग्न, तनिक नहीं   -ब्रह्म-लग्न.
 त्याग धन-संसार–बंध, सदा जपो प्यारे यशोदानंद.
 त्याग धन-संसार-बंध, जपो प्यारे सदा यशोदानंद.

(8)

बार- बार मातृ- कुक्षि- निवास, असह्य वेदना पुन: जन्म- त्रास.
मरण- दुसह दु:ख -हाहाकाऱ, पुनर्जनम की व्यथा -कथा-अपार.

त्राहि माम् हे श्रीपति- ज्योति साकार,  हे नाथ ! करो भव पार

भज गोविन्द-गोविन्द ! नर सरल-चित्त ! करो आश ईश -सर्व निमित्त.

(9)

पुन: दिवस पुनश्च रात, पुन: पक्ष पुनश्च मास.
पुन: अयन पुनश्च वर्ष, तदपि न विगत आशामर्ष.
ममता आशा जीवन-बंध, भज प्यारे केवल गोकुलानंद.
भज-भज प्यारे राधा-श्याम! सद्गति दायक श्रीघनश्याम.

(10)

गत-आयु -नहीं काम-शैलाब, वारि विहीन -कैसा तालाब ?
बिना वित्त  -कैसा परिवार, सत्य-दर्शन फिर क्या संसार ?
जीवन के ये मंत्र अमोल – शोधि-शोधि सदा  मुरारि बोल.
सदा जपिये जय गोकुलनाथ, वे अनाथों के सर्वदा  नाथ.

(11)

वक्ष-उरोज नाभि चारू चितवन, मांस-वसादि विकार भवन.
वाह्य चर्म सुघर मनोहर रूप, रक्त-मल-मूत्रादि-तन–बदरूप
प्रति- पल कीजिये सोच- विचार, सतत भजिये  नंदकुमार .
माया – मोह के संहारक नाथ, बार- बार कहिये -श्रीयदुनाथ.२

(12)

आये कहाँ से इस जगत में, क्या तेरी- मेरी पहचान ?
तात-मात हैं कौन हमारे -क्या जग का अनुपम-अवदान?
संसार है –यह छल-छद्म असार, यह सत्य जीवन का सार.
जपिये पल-पल गोविंद नाम, परम आश्रय श्रीकृष्ण ललाम.२

(13)

गाइये गीता-नाम-सहस्त्र-बार,ध्यान में रखिये सदा नंदकुमार.
 सुधी-संत-संग सदा श्रेयस्कर, दरिद्र- तोषन-पोषन  अघहर

श्रीगोविन्द सम मानते इन्हें सुजान, करते सदा इनका सम्मान.

गोविन्द – गोविन्द गोविन्द का ध्यान, है महामंत्र -मुक्तिगान.२

(14)

प्राण- वायु जबतक शरीर में, स्नेह कुशल-क्षेम पृच्छक गेह में.
विगत प्राण- वायु  शव भयंकर, नही  प्रिया लगाती  अंक भर.
यह जीवन का शाश्वत सत्य, प्रति पल गोविन्द भजो हे मर्त्यं !
पल-पल गोविन्द भजो हे मर्त्य ! केवल गोविन्द भजो हे मर्त्य ! २

(15)

काम-क्रीड़ा रति -समागम, आरंभिक सुख बाद में दु:ख -आगम.
मृत्यु पथ पर नर सदा आसीन, तदपि क्यों  पापाचार में लीन.
संसार नश्वरता का परम आगार, नही स्थायित्व नहीं आधार.
हर पल जपिये करूणानिधान, सर्व सशक्त -सबसे  बलवान .

(16)

चिथड़ों से विरचित-कन्था-माल, डाल गले में यति- निहाल.
जान पुण्यापुण्य का परम रहस्य, नहीं मैं- नहीं तू है सत्य.
परम प्रकाश सर्व  समाहित, सोऽहम समष्टि भेद अनुचित.
लब्ध परम तत्त्व -फिर कैसा शोक,भज गोविन्द बनो विशोक.

(17)

होता अफलित गंगा- सागर-स्नान, व्रत का पालन अथवा दान;
जब तक गोविन्द का नहीं आदेश, व्यर्थ कोटि दान- तप- कलेश.
साज्ञा  सफल होता सर्व कर्म, स्मरण : गोविन्द, मनुज का धर्म;
सतत भजन गोविन्द का नाम, कुंठा- मुक्त विगत संचित काम.

आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र मूल पाठ

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥भज …

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥२॥ भज …


यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति को॓ऽपि न गेहे॥३॥ भज …

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायांबरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोक: ॥४॥ भज …

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम्‍ ॥५॥ भज …

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्॥६॥ भज …


बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥७॥ भज …

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥ भज …

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥९॥ भज …

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥१०॥ भज …

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् ॥११॥ भज …

कस्त्वं कोऽहं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥१२॥ भज …

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥१३॥ भज …

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१४॥ भज …

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१५॥ भज …


रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥ भज …

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥ भज


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